|
१६ से १८ वर्ष के विधार्थियों की कक्षा में माताजी की क्रिया
१९६१ मै, स्कूल में अध्ययन की पुनर्व्यवस्था के अवसर पर, माताजी ने कहा था कि अगर बिधार्थी पढ़ाई के रुचिकर विषयों पर सवाल करना चाहें तो वे स्वयं उनक उत्तर देने के लिये तैयार हैं । किसी ने उनसे एक विषय चून देने के लिये कहा, तो उन्होंने कहा : ''मौत'' ।
यह प्रस्ताव सबके सामने रखा गया । एक फ्रेंच कक्षा ने निम्नलिखित कार्य माताजी के इस प्रस्ताव के उत्तरस्वरूप दिया ।
विभित्र बैठकों में हर एक विधार्थी ने स्वयं प्रश्र बनाये और इन प्रश्रों को इकट्ठा करके माताजी के पास भेज दिया गया ।
(बिधार्थी ने माताजी को लिखा और उनके साध ''मौत'' पर अध्ययन करने की
३११ स्वीकृति मामी माताजी ने मौखिक रूप ले अध्यापक को ये आवश्यक निर्देशन दियों?
विषय है : मौत क्या है?
किस तरह आरंभ किया जाये? अपने भीतर खोज करनी चाहिये, भीतर देखना चाहिये; पुस्तकें पढ़कर जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिये । या प्राण और मन मे क्या हो रहा हैं यह ढ़ूढ़ना नहीं चाहिये : मौत के बारे मे तुम्हें क्या लगता है, तुम क्या सोचते हो?
खोज पूरी तरह भौतिक स्तर पर होनी चाहिये : भौतिक दृष्टि सें, मौत क्या हैं ? एकाग्र होना चाहिये और उत्तर अपने अंदर खोजना चाहिये । भाषण नहीं देने चाहिये । एक ही वाक्य बोलना चाहिये । तुम जितने अधिक बुद्धिमान होते हों, अपने- आपको अभिव्यक्त करने के लिये तुम्हें उतने ही कम शब्दों की जरूरत होती हैं ।
(२७ अप्रैल, १९६८)
(''भौतिक दृष्टि से मौत क्या हैं?'' इस प्रश्र पर विद्यार्थियों के उत्तर : ''दिमाग के ओ मे रक्त-संचार पूरी तरह बंद हो जाता हैं । '' ''जब दिमाग काम करना बंद कर देता है और शरीर का विघटन शुरू हो जाता है तब मौत होती हैं ! '' 'ऊर्जा का स्रोत श अंतरात्मा की के कारण हर प्रकार का शारीरिक क्रिया- कत्कप बंद हो जाता है?'' ''मौत के वास्तविक तथ्य सै मुझे का विचार आता है जिसमें हम बढ़ती ऊर्जा के साथ 'अंतरिम' मे उछालें जाते हैं '' माताजी कक्षा को संबोधित करते हुई उत्तर देती हैं :)
मैंने तुम्हारा भेजा हुआ पत्र मजा लेकर पढ़ा । और यह रहा मेरा उत्तर :
मौत उन कोषाणुओं के विकेंद्रीकरण और छितराव की घटना है जिससे भौतिक शरीर बनता है
चेतना अपने स्वभाव सें हीं अमर है, और भौतिक जगत् में अभिव्यक्त होने के लिये वह कम या अधिक टिकाऊ रूप धारण करती है ।
भौतिक पदार्थ रूपांतर के मार्ग पर है ताकि वह इस चेतना के लिये बहुरूप अभिव्यक्ति की अधिकाधिक पूर्ण और टिकाऊ विधि बन सके ।
(१८ मई, १९६८)
* ३१२ (इस बार माताजी हर एक प्रश्र का अलग उत्तर देती हैं और अपना उत्तर अध्यापक को भेजती हैं :)
यह रहे तुम्हारे विद्यार्थियों के प्रश्रों के उत्तर । आशा हैं बे समह्म जायेंगे ।
अगर कोई अपने व्यक्तित्व के बारे मे सचेतन हो जाये तो क्या वह सामूहिक हित की परवाह किये बिना स्वार्थ ले काम का खतरा मोल लेता है ?
एक कोषाणु का अपना हित क्या हैं!
* क्या विकेंद्रीकरण एक ही बार में हो जाता है या थोड़ा- थोड़ा करके होता है?
सब कुछ एक ही साथ नहीं छितर जाता; बहुत समय लगता हैं ।
शारीरिक सत्ता की केंद्रीय संकल्पशक्ति सभी कोषाणुओं को एक साथ बनाये रखने की शक्ति को त्याग देती है । यह पहला तथ्य है । किसी-न-किसी कारण से वह (सत्ता) विघटन को स्वीकार लेती हैं । सबसे शक्तिशाली कारणों मे से एक है ऐसे असामंजस्य का भाव जो सुधार से परे है; दूसरा हैं समन्वय और सामंजस्य के प्रयास को बनाये रखने सें विरक्ति । वास्तव मे, अनगिनत कारण हैं, लेकिन जबतक कि कोई प्रबल दुर्घटना न हो तबतक विशेष रूप सै संबद्धता को बनाये रखने की यह इच्छा, किसी-न-किसी कारण से या अकारण ही, गायब हो जाती हैं । यही अनिवार्य रूप से मृत्यु के पहले होती हैं ।
क्या हर एक की केंद्र के साध अपन? ऐक्य बनाये रखने क्वे लिये सचेतन होना चाहिये?
बात ऐसी नहीं हैं । यह अभी अर्ध-सामूहिक चेतना हैं, यह कोषाणुओं की व्यष्टिगत चेतना नहीं हैं ।
*
क्या विकेंद्रीकरण हमेशा मौत के बाद ही होता है या पहले मी शुरू हो सकता है !
बहुत बार यह पहले शुरू हो जाता है ।
३१३ कोषाणु हवा मे छितर जाते हैं श शरीर में ही ? अमर हवा मे छितर जाते हैं तो निश्चय ही शरीर को कोषाणु के साथ विलुप्त हो जाना चखिये?
स्वभावतः, मौत के बाद शरीर विलीन हों जाता ३, लेकिन उसमें बहुत समय लगता 'हैं ।
*
क्या ''ओ क्वे छितराव'' के इस वाक्यांश में ''छितराव'' शब्द का कोई विशेष अर्थ है? अगर है तो क्या है?
मैंने बिलकुल निश्चयात्मक अर्थ में छितराव शब्द का प्रयोग किया है ।
जब शरीर को रखनेवाली एकाग्रता बंद हो जाती है और शरीर विलीन हो जाता है तो जो कोषाणु विशेष रूप से विकसित किये गये थे और जो अपने अंदर स्थित 'उपस्थिति' के प्रति सचेतन बन गये थे, है बिखरे जाते हैं और किसी और संघटन में पैठ जाते हैं जहां, संसर्ग के दुरा, वे उस 'उपस्थिति' को जगाते हैं जो हर एक में हैं । और इस तरह संघटन, विकास और छितराव के तथ्य से सारा जड़-पदार्थ विकसित होता है और संसर्ग के द्वारा सीखता है, संसर्ग के द्वारा विकसित होता है, संसर्ग के दुरा अनुभव प्राप्त करता है।
स्वभावत:, कोषाणु शरीर के साथ विलीन हो जाता हैं । कोषाणुओं की चेतना अन्य संयोजनों में प्रविष्ट होती है ।
(५ जून, १९६८)
*
जब भौतिक सत्ता की संकल्पशक्ति अकारथ हों जाती है तो क्या वह भौतिक कारण के बिना होता है या बिना किसी कारण क्वे?
भौतिक चेतना केवल भौतिक रूप से हीं सचेतन होती है; भौतिक सत्ता की संकल्पशक्ति उन कारणों के बिना विलुप्त हो सकतीं हैं जिनके बारे में वह खुद सचेतन हों ।
समन्वय और सामंजस्य को बनाये रखने के प्रयास में भौतिक सत्ता को विरर्क्लि कहां सै आती हे?
साधारणत:, यह विरक्ति तब पैदा होती है जब सत्ता का एक अंश (कोई महत्त्वपूर्ण
३१४ अंश, प्राण या मन) गति करने सें एकदम इंकार कर दे । तब यह इनकार, भौतिक रूप मे, समय के साथ आनेवाले विघटन के विस्फोट प्रयास करने की अस्वीकृति मे अनूदित होता है ।
भौतिक सत्ता की केंद्रीय संकल्पशक्ति में और कोषाणुओं में संपर्क कहां होता है ? और किस तरह होता है?
कोषाणुओं में एक आंतरिक रचना या संगठन होता है जो विष के संगठन से मेल खाता है । इसलिये समरूप आंतरिक और बाह्य अवस्थाओं में संपर्क होता है... । वह (अवस्था) ''बाह्य' ' नहीं होती, लेकिन व्यक्ति के लिये बाह्य होती है । यानी, कोषाणु को, अपनी आंतरिक संरचना मे, संपूर्ण संरचना मे स्थित अपने साथ मेल खानेवाले अवस्था सें स्पंदन मिलता हैं । हर एक कोषाणु अलग-अलग दीप्तियों से रचा हुआ हैं, उसका अपना पूर्ण रूप से ज्योतिर्मय केंद्र होता है, और ज्योति का संपर्क ज्योति से होता है । यानी, संकल्प-शक्ति, ज्योतिर्मय केंद्र मेल खानेवाली ज्योतियों को छूकर, सत्ता के आंतरिक संपर्क द्वारा कोषाणुओं पर काम करता है । हर एक कोषाणु ब्रह्मण्य के साथ मेल खानेवाला छोटा-सा जगत् हैं ।
(१५ जुलाई, १९६८)
*
क्या प्रगति के लिये संकल्प समय क्वे साथ आनेवाले विघटन को रोकने के लिये काफी है? शारीरिक सत्ता इस विघटन की किस प्रकार रोक सकतीं हैं?
ठीक यही तो है शरीर का रूपांतर : शारीरिक कोषाणु केवल सचेतन हीं नहीं, बल्कि सच्ची 'शक्ति-चेतना' के प्रति ग्रहणशील बन जाते हैं; यानी, वे इस उच्चतर 'चेतना' के काम को स्वीकार कर लेते हैं । यहीं हैं रूपांतर का काम ।
कोषाणु के जड़ पदार्थ पर संकल्प-शक्ति और केंद्रीय प्रकाश जो भौतिक नहीं है किस तरह काम करते हैं?
यह ठीक वैसा हीं है जैसे यह पूछना : ''संकल्प-शक्ति जड़-पदार्थ पर कैसे काम करती हैं?'' सारा जीवन ऐसा ही तो हैं । इन बच्चों को समझाना चाहिये कि उनका पूरा अस्तित्व ही इस संकल्प-शक्ति की क्रिया का परिणाम है, कि संकल्प-शक्ति के बिना जड़-पदार्थ निश्चय और अचल होगा और ठीक तथ्य यह कि जड़-पदार्थ पर संकल्प-शक्ति के स्पंदन की क्रिया ही जीवन को संभव बनाती है । वरना जीवन होता
३१५ ही नहीं । अगर वे एक वैज्ञानिक उत्तर चाहते हैं और यह जानना चाहते हैं कि यह कैसे होता हैं तो वह ज्यादा कठिन हैं, लेकिन तथ्य तो है ही, यह तथ्य हर क्षण दिखता हैं ।
- (२० जुलाई, १९६८)
*
हम शारीरिक सत्ता के प्रति किस तरह सचेतन हो सकते हैं?
मानवजाति, लगभग पूरी-की-पूरी, केवल शारीरिक सत्ता के बारे में हीं सचेतन है । शिक्षा के साथ-साथ, अपने प्राण और मन के बारे में सचेतन व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है । जहांतक चैत्य पुरुष के प्रति सचेतन होनेवाले मनुष्यों का सवाल हैं, उनकी संख्या अपेक्षया बहुत कम हैं ।
अगर तुम कहना चाहो : ''शारीरिक सत्ता की चेतना को किस तरह जगाया जाये?'' तो शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य ठीक यही तो है । शारीरिक शिक्षा ही कोषाणुओं को सचेतन होना सिखाती है । लेकिन दिमाग को विकसित करने के लिये है अध्ययन, निरीक्षण, बुद्धिमत्तापूर्ण शिक्षा, विशेष रूप से निरीक्षण और तर्कणा । और स्वभावतः, चरित्र के दृष्टिकोण से चेतना की शिक्षा के लिये होना चाहिये योग ।
क्या शारीरिक सत्ता की केंद्रीय संकल्प-शक्ति का शरीर मे कोई विशेष स्थान
दिमाग है ।
क्या मरे बिना मौत की अनुभूति हो सकती है?
निश्चय ही । तुम्हें यौगिक रूप से मौत की अनुभूति हो सकती है; यह अनुभूति भौतिक रूप से मी हो सकतीं है, बशर्ते कि कुछ हीं समय के लिये हो ताकि चिकित्सकों को इतना समय न मिले कि तुम्हें मुर्दा घोषित कर दें ।
मौत के बाद सत्ता का कौन-सा अंग इस बात के प्रति सचेतन होता है कि सत्ता मर गयी है?
सत्ता का जो मी अंग जिंदा रहता हैं वही समझ लेता है कि शरीर अब नहीं खा । यह निर्भर है ।
३१६ हम निश्चिति क्वे साथ कैसे कह सकते हैं कि भौतिक शरीर मर गया है?
केवल तभी जब वह सनडे लगे ।
विघटन की क्रिया को कैसे रोका या नियंत्रित किया जाये ?
शारीरिक संतुलन को बनाये रखने की सावधानी बरात कर ।
जब कोई मरता है तो क्या यह जरूरी है कि उसे शारीरिक यातना हो ?
जरूरी नहीं हैं ।
(२८ सितम्बर,१९६८)
*
मौत की प्रक्रिया को रोकने के लिये हमें अपने दैनिक जीवन मे क्या करना चाहिये ?
तरीका यह है : शरीर से अपनी चेतना को खींच लो और उसे गभीर जीवन पर एकाग्र करो ताकि इस गहरी चेतना को शरीर में ला सको ।
अगर जीवन मै ''अहं'' का भाव मन के साथ एक हो क्या है तो क्या मौत के बाद की सब अनुभूतियां इसी ''अहं'' की होती हैं यानी क्या वह उसके साक ही जीवन की स्मृतियां को मी बनाये रखता है? मैं यह मन क्वे बारे मे पूछ रहा हूं क्योंकि मौत के बाद दूसरे अंगों की अपेक्षा यह ज्यादा समय तक बना रहता है
यह बात सच नहीं है कि मन ज्यादा देर तक बना रहता है। चैत्य चेतना जो शरीर के एक छोटे-से अंश के साथ एक हो गयी थी वह इस छोटे-से भौतिक व्यक्ति मैन से निकल जाती हैं । इस चेतना ने जिस ढंग से अपना जीवन गढ़ा है, उसी के अनुपात में वह अपनी बनायी हुई चीज को याद रखती हैं और स्मृति घटनाएं हैं चैत्य चेतना के साध बहुत घनिष्ठ रूप से बंधी होती है । जहां चैत्य चेतना ने घटनाओं मे भाग नहीं लिया, उन घटनाओं की स्मृति नहीं रहती । और केवल चैत्य चेतना हीं बनी रह सकतीं है; मन स्मृतियां संजोये. नहीं रखता, यह बात बिलकुल गलत हैं ।
(१ फरवरी, १९६९)
*
३१७ (कुछ दिन बाद इस बिधार्थी के विषय में अध्यापक क्वे साध बातचीत करते हुए माताजी निष्क के रूप मे कहती हैं :?
बरताव में मौत है हीं नहीं । |